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कुएँ का मेंढक

बड़ी देर तक वह नदी का प्रवाह देखता रहा। ढलान की ओर तेजी से बहती नदी का पानी जब किसी चट्टान से टकराता था तो सफ़ेद फेन सा छ्लक जाता। समतल सतह पर पानी एक जादुई हरी रंगत लिए होता। बड़े से गोल पत्थर पर बैठना अब मुश्किल हो रहा था। सूरज की तपिश से पत्थर गरमाने लगे थे।

अन्यमनस्क सा वह खेल के मैदान से नदी किनारे आ गया था। रवीश ने पूछा भी था पर उसने अभी घर लौटने से मना कर दिया था। साथ के सब लड़के अपने अपने घर जा चुके थे।

कस्बे के अविवाहित डाक्टर को देखने एक सज्जन और उनकी पत्नी आए थे। अपनी साली साहिबा से डॉक्टर के रिश्ते की बात चलाने। चूंकि उसके पिता डॉक्टर और उन सज्जन दोनों से परिचित थे तो तय यह पाया गया कि उनके घर पर ही देखने दिखाने की रस्म होगी।

चश्मा पहने हुये वह सज्जन जिले के अधिशासी अभियंता थे। गरमी के दिन थे। बैठक में जब दोनों मियां- बीवी बैठे तो उनकी खातिरदारी की ज़िम्मेदारी उमेश को ही मिली। सकुचाते हुये उसने दोनों को नमस्ते की और चाय के कप लेकर उनके सामने रख दिये।

अभियंता महोदय ने नजर भरकर उमेश को घूरा, फिर बोले, “स्कूल जाते हो?”

उमेश जैसे आसमान से गिरा। कोई उसके बारे में यह धारणा भी बना सकता है, उसे सपने में भी गुमान नहीं था। नवीं क्लास तक आते-आते वह स्टीफ़न हावकिंग्स से लेकर चेखोव तक पढ़ चुका था। सो कोई “स्कूल जाते हो?” ऐसा पूछे उसे यह निरा अपमानित कर देने वाला प्रश्न लगा।

“जी। नवीं में पढ़ता हूँ।” उसने थोड़ा अजीब सी आवाज में जवाब दिया।

इतने में अभियंता जी ने अपनी शर्ट उतार कर कुर्सी की पीठ पर सजा दी। स्लीवलेस सफ़ेद अंडरशर्ट में उनकी तोंद और बालों भरा शरीर देख कर उसे कोफ्त हुई। यह पढ़ा लिखा आदमी किसी दूसरे के घर की बैठक में ऐसा कैसे कर सकता था।

“बहुत गरमी है भाई।” दोहराते हुये उहोने अपनी दोनों हथेलियाँ अपने सिर के पीछे जोड़ लीं।

इससे उनकी पाउडर भरी खूंटेदार बगलें नुमायां हो गईं।

उमेश हैरानी से उन्हें देखने लगा।

उनका तन और मन उस निम्न मध्यम वर्ग के सपाट दीवारों वाले सज्जा विहीन कमरे से तेज़ी से उचाट होने लगा। सामने बैठा उमेश उन्हें कृपा का पात्र सा लगा। जिसकी झोली में कुछ उपदेश और थोड़ा ज्ञान गिरा कर वह अपने बड़प्पन को उस अतिसामान्य परिवेश से बचाना चाह रहे थे।

“इतिहास- भूगोल पढ़ रहे हो?”

“जी नहीं, साइंस लिया है, मैथ्स।” उमेश ने ठोड़ी ऊँची करते हुए उत्तर दिया।

“ओहो। अच्छा है। कोशिश करो तो पोलिटेक्निक में डिप्लोमा कर सकते हो। ज़िंदगी बन जाएगी तुम्हारी।”

उमेश के शरीर का ख़ून उसके चेहरे पर उतर आया। “आप डिग्री लेकर इंजीनियर बनेंगे और हम डिप्लोमा करके आपके मातहत।” उसने कहना चाहा पर चुप रहा।

उस शाम वह अपने दोस्त भुवन के साथ टहल रहा था। भुवन उससे एक साल बड़ा था। संजीदा सा लड़का था, पढ़ाई-लिखाई में गम्भीर।

“भुवन, तुम पढ़-लिख कर क्या करने का सोच रहे हो?”

भुवन ने हंस कर कहा, “इंजीनियर बनूँगा यार या अफ़सर।”

“क्यों?”

“एक बार अफ़सर या इंजीनियर बन जाओ फिर ज़िंदगी भर की मौज। कोई काम नहीं बस आराम ही आराम और ढाई पर्सेंट ऊपर से।”

“यह क्या बात हुई?”

“क्यों, क्यों नहीं हुई? ऐसा ही होता है। एक बार अफ़सर बन जाओ तो जिंदगी भर आराम ही आराम।”

“पर मैं तो सोचता हूँ, साइंटिस्ट बनूँगा। पता लगाऊंगा, यह सब संसार बना कैसे है?”

भुवन ज़ोर से हँसा।

“सब पता नहीं है, क्या । अब खोजने को बचा ही क्या है। सब तो लोगों ने खोज लिया है। हमारे लिए कुछ नहीं छोड़ा।”

“क्या बात कर रहे हो? अब कुछ खोजने को बचा ही नहीं?” उमेश ने हैरान होकर भुवन से पूछा।

“तू ही बता? क्या बचा है, खोजने को?” भुवन ने प्रतिप्रश्न किया।

उमेश को तुरंत कुछ नहीं सूझा। उसकी चुप्पी लम्बी होते देखकर भुवन हँसने लगा।

“इसीलिए तो कहता हूँ, अफ़सर बनो और ज़िंदगी भर मौज करो।”

एक अजीब सी अकुलाहट और बेचैनी से उसका मन भर गया। उसे हाल ही में किसी पत्रिका में देखी माइकल ऐंजेलो की सिस्टीन चैपल की छत पर बनी पेंटिंग ऐडम्स क्रियेशन याद आई। उस पेंटिंग में जिस तरह ईश्वर अपनी तर्जनी से आदम की तर्जनी को छूकर उसे जीवन देता है, उसी तरह, बस उसी तरह, काश कोई उसे छू दे और उसे पता चल जाए कि जीवन किस चीज़ की खोज है।

वह घर लौटा तो अँधेरा हो गया था। लालटेन की रौशनी में दीदी पढ़ रही थी।

“दीदी, आपको क्या करना है ज़िंदगी में?”

“क्या मतलब?” दीदी ने उलटे उसी से पूछ लिया।

“मतलब, आप जीवन में करना क्या चाहतीं हैं?”

“क्या करना होता है?” पीछे से माँ की आवाज़ आई, “पढ़ेगी, लिखेगी तो जीने- रहने का सलीक़ा आ जाएगा। करनी होगी तो नौकरी करेगी, फिर शादी-बच्चे। और क्या?”

दीदी उसे देखकर हंस दी। “और मेरा भाई इंजीनियर बनेगा, बड़ा साब।”

वह चुपचाप खाना खाकर बाहर सीढ़ियों पर आकर बैठ गया। कुछ खिड़कियों से लालटेन या ढिबरी का मद्धम उजाला बाहर आ रहा था। और पहाड़ों पर घना अँधेरा छाया हुआ था। ऊपर, लाखों तारे टिम टिम कर रहे थे।

तारों को देखकर उसे राहत सी मिली। धरती पर ज़िंदगी सोने की तैय्यारी कर रही थी, पर ऊपर आसमान में ज़िंदगी ने दंगा मचा रखा था।

“पर मैं कौन सी नई बात सोच रहा हूँ?” उसे भुवन सामने खड़ा दिखाई दिया।

हकलबेरी फ़िन में मार्क ट्वैन ने सौ साल पहले लिखा था, “ऊपर आकाश में आसमान था। चमकते तारों से भरा। हम पीठ के बल लेटकर उन्हें देखा करते और बतियाते – इन्हें किसी ने बनाया है या यह बस यूँही हो गए हैं।”

भुवन की खींची हुई सीमा ने उसे निराशा में डुबा दिया। जब तक नींद ने उसे घेर नहीं लिया वह डरा- सहमा सा रज़ाई के अंदर करवट बदलता रहा।

नदी किनारे के पत्थर तप गए थे। पर उसका मन उठने को नहीं हुआ।

उसके मन में अब भी गहरे कहीं एक भ्रम , एक सपना सा था। अचानक नदी के हरे पानी से एक जलपरी निकल बाहर आएगी और उसे अपने आग़ोश में लेकर कायनात का राज बतलाएगी।

तब वह जान पाएगा कि अगर वह है तो क्यों है।

अगर जब सब तय है; धरती और स्वर्ग की नियति भी तय है

नहरें और बावड़ियाँ भी खुद चुकी हैं

गंगा और जमुना के किनारे भी तय हैं

तब हम और क्या करें?

तब हम नया क्या बनाएँ?

गंगा मैय्या, तू ही बता,

अब हम और क्या करें?*

पर कोई जलपरी नहीं आई। हाँ पत्थरों की तपिश इतनी बढ़ गई थी कि वह उठ खड़ा हुआ। बहुत देर तक नदी को देखते रहने के बाद वह घर लौट पड़ा।

(* 800 BC पहले की एक असीरियाई कविता पर आधारित)

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