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छल

सुभाष मास्साब ने उस दोपहर स्कूल में एक नाटक का आयोजन किया था।

सुभाष मास्साब अनूठे थे। एक अध्यापक जो अगर विज्ञान पढ़ाते तो ग्रेगोर मेंडल प्रतीत होते थे, पेंटिंग करते तो लगता था नंदलाल बोस हैं। अभिनय करते तो लगता था साक्ष्यात भरत मुनि सामने आ खड़े हुए हैं , और अगर चुहल करने पर आते तो उनसे बड़ा खिलंदड़ा कोई नहीं होता था। मात्र अध्यापक नहीं थे, शिक्षक थे।

पर यह कहानी उनकी नहीं है, और न ही है – धर्मवीर की। जो उस दोपहर के नाटक का नायक था, चंद्रगुप्त मौर्य। यह सुबोध की कहानी है, जो झिझकते-झिझकते सुभाष मास्साब का नैरेशन सुनते हुए ख़ुद को चंद्रगुप्त जैसा देख रहा था। पर संकोच और हया इस क़दर हावी थी कि रामलीला में बंदर बनना भी उसे भारी लगता था।

पर शायद कोई एक पात्र उस दिन आ नहीं पाया था। मास्साब ने एक नज़र सुबोध को देखा और कहा, “तुम कर लोगे?”

सुबोध की नाक पर आ गयीं पसीने की बूँदे देखते हुए उन्होंने उसे दिलासा दिया, “द्वारपाल का काम है। बस, खड़े रहना है। और पहली बार पर्दा उठने पर ज़ोर से कहना है – महाराज की जय हो।”

मन रोमांचित हो उठा सुबोध का, पर सपाट चेहरे से बस हाँ में सिर हिला भर पाया।
“ठीक है, अब सब आठवीं कक्षा में जाकर कौस्ट्यूम पहन लो और तैय्यार हो जाओ। ठीक तीन बजे नाटक शुरू होगा।”

सुबोध कपड़े बदलते हुए भी धर्मवीर को देख रहा था। जो राजसी कपड़ों में सच का राजकुमार लग रहा था। उसका मन फिर ललचाने लगा, मैं चंद्रगुप्त…

जहाँ पर यह एक मंज़िला, टीन की छत वाला स्कूल एक लम्बी बैरेक की तरह बना था, वह जगह नदी से थोड़ी ऊँचाई पर थी। स्कूल से बाहर निकलते ही जो दृश्य दिखता था, वह नदी के रेतीले पाट और दो पहाड़ों के बीच से नदी के यकायक लंबवत घूम जाने का था। और उस पहाड़ की तलहटी पर जहाँ से नदी घूमती थी, पानी कुछ देर को ठिठक कर खड़ा रह जाता था। पानी के क्षणिक ठहराव से नदी एक बड़े ताल सी लगती थी।

इस जगह का नाम था, घोपट्याताल। पूरे इलाक़े के शव यहीं जलाने लाए जाते थे। लाल चमकीले कपड़े में लिपटे शव के थोड़ा आगे क्रिया में बैठने वाला चलता था और पीछे-पीछे पूरा समाज।
“राम राम सत्य है…” यह आवाज़ जब सुबोध के कान में पड़ती थी, तो वह डर कर घर के भीतर छुप जाता था। हर घर से लोग जाते थे अंतिम कर्म में शामिल होने के लिए, एक मोटी और बड़ी लकड़ी उठा कर। लकड़ी पर एक निगाह भी सुबोध को डरा देती थी।

भूत-प्रेतों से घिरे बचपन में हर बड़ी चट्टान, हर निर्जन स्थान किसी न किसी भूत या चुड़ैल का अड्डा होती थी। ऐसी जगह से गुज़रते समय अक्सर सुबोध को लाल चमकीले कपड़े का ही ध्यान आता था। बाँस की डंडियों में बँधी, पूरी तरह लाल चमकीले कपड़े में लिपटी देह। उसकी आँखे कुछ धुँधला सा देखने लगतीं।

आठवीं की कक्षा स्कूल बिल्डिंग के आख़िरी दक्षिणी छोर पर थी। पीपल के उस बड़े से पेड़ के पास, जिसके ठीक आगे स्टेज बनाया गया था। बिल्डिंग के धुर दूसरे छोर पर, एक पानी का नल था, सबके पानी पीने के लिए। जिस पर हाथ की अँजुरी बनाकर लड़के-लड़कियाँ पानी पिया करते थे।

स्कूल आने के दो रास्ते थे, एक उत्तर की तरफ़ से, दूसरा दक्षिण की तरफ़ से। दक्षिण का संकरा रास्ता रिहायशी इलाक़े से होकर आता था। संकरी पगडंडी बेगुल से घूम कर स्कूल पहुँचती थी, उसके पास एक खान रहता था, अपने खच्चरों के साथ। खच्चर नदी किनारे से रेत लादकर ट्रक तक पहुँचाते थे। कभी वैध- कभी अवैध। मटमैले कपड़े और बेडौल शरीर वाला खान किसी दूसरी ही दुनिया का आदमी लगता था। गाँव के दो सबसे धनी पर जानी दुश्मन परिवारों में उसे और उसके खच्चरों को लेकर ख़ूब खींचतान और गाली-गलौज होती। ज़मीन के एक-एक इंच हिस्से को लेकर इन परिवारों जैसी अदावत शायद कौरवों और पांडवों में ही हुई होगी।

नाटक शुरू होने में थोड़ी ही देर थी। अध्यापक और विध्यार्थी बैठने लगे थे। उत्सुकता और उत्तेजना में उसने किवाड़ की झिर्री से झाँक कर देखा। दो बहुत हैंडसम व्यक्ति आगे वाली कुर्सियों पर बैठे थे। एक को वह जानता था। गाँव के बैंक में ऑफ़िसर था वह। गाँव के लोगों ने उस तरह रोज़ बदल-बदल कर डिज़ाइनर कपड़े पहनने वाला आदमी कभी देखा नहीं था। उसकी बड़ी मोहरी वाली पर जाँघों पर तंग, चमकदार नायलोन और पोलिएस्टर की पैंट उसकी लम्बी टांगों पर ख़ूब फबती थी। धूप का चश्मा लगाए जब वह अपने गर्वीले क़दम भरता था तो क्या मर्द क्या औरतें सबकी गरदन पर बल पड़ जाते थे।

दूसरा आदमी अनजाना था। उसके कपड़े बैंक वाले की तरह भड़कीले नहीं थे। पर सरकारी बाबुओं जैसी एक नीरसता उसके कपड़ों में थी और एक थोथला गुमान उसके चेहरे पर।

सुबोध दोनों को देख ही रहा था कि उसे धर्मवीर ने पीछे खींचा।

“पानी पीना है तो पी आओ। फिर डेढ़ घंटे तक नहीं जा सकते।” धर्मवीर बोला।

द्वारपाल के कौस्ट्यूम में वह बाहर निकला। इतराता हुआ वह पानी के नल की ओर जा ही रहा था कि उसकी निगाह सामने के पहाड़ पर पड़ी। पहाड़ के सीने पर ऊपर से नीचे की ओर एक शव-यात्रा आ रही थी। सूरज की रौशनी में नहाया हुआ लाल चमकीले कपड़े में लिपटा शव और पीछे चल रहे लोगों का समवेत गान, राम राम सत्य है…

सुबोध सन्न रह गया। और दौड़कर जो दरवाज़ा खुला दिखा उसी कक्षा में घुस गया। कमरे में कोई नहीं था, सब नाटक देखने जा चुके थे।

पीछे की क़तार में एक कुर्सी के पीछे वह आँखे मींच कर बैठ गया। कुछ देर बाद आवाज़ आईं, “सुबोध, सुबोध?” एक -दो लोगों ने दरवाज़ा खोलकर अंदर झाँका भी। पर सुबोध ने कोई जवाब नहीं दिया।

अँधेरा होने से कुछ देर पहले वह बाहर निकला। स्कूल में सन्नाटा फैला था। बाहर कुर्सी पर बैठकर सुर्ती मलते धनीराम चपरासी ने उसे देखा, पर कुछ बोला नहीं। सुबोध की कुछ तलाशती आँखें धनीराम के सिर के पीछे घोपट्याताल पर पड़ीं। शव जलाया जा चुका था। मलामियों में एक आध लोग अभी भी रुके हुए थे।

वह घर वापस लौटा। सब कुछ तो सामान्य था। रात का खाना खाकर वह बिस्तर पर आया। मेज़ पर रखे लैम्प की चिमनी हल्की काली हो रही थी। छोटी खिड़की के पार उसने बाहर देखा तो चमकीला लाल कपड़ा दिखाई दिया। घबराकर उसने खिड़की बंद कर दी।

आँखे बंद करने पर फिर उसे पहाड़ के सीने से नीचे उतरता लाल चमकीले कफ़न में लिपटा शव दिखने लगा। राम राम सत्य है…का कोरस दिमाग़ में बज रहा था। उसने डर कर आँखें खोल दीं। तभी दरवाज़ा खुला। माँ मुस्कराते हुए भीतर आई और दूध का गिलास मेज़ पर रखते हुए बोली, “सोने से पहले दूध पी लेना। और हाँ, लैम्प बुझा देना। कल भूल गए थे तुम।”

लैम्प बुझने का ख़याल आते ही उसे लाल चमकीला कपड़ा दिखने लगा। धीरे- धीरे हवा में तैरता हुआ वह लाल कपड़ा घोपट्याताल से खैरानी बाज़ार आ रहा था। अंधेरी सड़क पर उसके घर के बाहर वह लाल कपड़ा ठिठक कर रुक गया। बिलकुल वैसे ही जैसे घोपट्याताल के पास नदी ठहर जाती है। और तब उसने महसूस किया कि लाल कपड़ा खिड़की से चिपक कर खड़ा हो गया है।

वहम है मेरा, सुबोध ने सोचा और बुक रैक से वेताल की नई कॉमिक्स निकाली। सफ़ेद घोड़े में सवार, नीले रंग के कौस्ट्यूम में, नक़ाबपोश, चलता फिरता प्रेत, जो कभी नहीं मरता।

सुबह जागने पर उसने देखा कि लैम्प की चिमनी पूरी तरह काली पड़ी हुई थी और दूध ठंडा होकर जम सा गया था। हाथ-मुँह धोकर वह बालकनी में खड़ा हुआ ही था कि उसने देखा लोगों का हुजूम ऊपर की ओर जा रहा था।

नीचे सड़क पर आकर उसने अपने हमउम्र लड़कों से वाक़या पूछा। बैंक के पीछे, नदी की दो धाराओं के बीच रेहड़ में एक लाश मिली है, पता नहीं किसकी है।” भैरव
ने बताया।

“अमीन की है, अमीन की।” भुवन बोला।

तभी रोड पर पुलिस वालों के साथ लोग एक शव को लाते दिखे। यह शव लाल कपड़े में नहीं लिपटा था। सफ़ेद रंग की सरकारी गेस्ट हाउस की चादर में लिपटा था।

“कौन अमीन?” उसने पूछा।

“अरे, वही अमीन जो कल नाटक देखने आया था, बैंक वाले के साथ। सरकारी आदमी था। ज़मीन
की लड़ाई सुलझाने आया था।”

अमीन का चेहरा स्टेज की पहली लाइन की कुर्सी से उठकर सुबोध की आँखों में आकर बैठ गया। जब पुलिस वाले सफ़ेद कपड़े में लिपटे उसके शव को ले जा रहे थे, सुबोध ने डर से आँखे बंद कर लीं। पर आँखें बंद करते ही आँखों में बैठा अमीन ज़िंदा हो गया।

इस घटना के एक सप्ताह बाद की बात है। आर.एस.एस. का एक कैम्प स्कूल में लगा।

“भाई साहब, बस दो दिन और एक रात की बात है।” मुख्य शिक्षक ने कहा।
“छोटे बच्चे हैं। रात को घर आ जाएँ तो ठीक नहीं रहेगा?” सुबोध के पिताजी ने सुझाया।

“भाई साब, रात को बौद्धिक होगा, सह भोज भी। रात को रुकना तो ज़रूरी है।” शिशु मंदिर के
प्राचार्य बोले।

पच्चीस एक बच्चों का कैम्प था। दिन तो गुज़र गया। पर रात हुई तो सुबोध की बेचैनी बढ़ गयी। लाल चमकीले कपड़े में लिपटा शव उसकी आँखों के आगे नाचने लगा। रात को सोने की जो जगह सुबोध को मिली तो उसका दिल बैठ गया। उसका कम्बल और चादर ठीक वहीं बिछा था, जहाँ नाटक वाले दिन वह कुर्सी के पीछे छिपा था।

बौद्धिक में उसका मन नहीं लगा। बार बार कानों में – राम राम सत्य है – गूँजने लगा। बौद्धिक के बाद सोने की घोषणा हुई तो सब लेट गए। उसने चाहा कि वह कह दे – पैट्रोमेक्स मत बुझाइए। पर कह नहीं पाया। अँधेरा ख़ूब घना हो गया था। भैरव और भुवन उसके पास ही लेटे थे। उसका मन हुआ कि उनसे जागते रहने को कहे, पर ऐसा वह कह नहीं पाया।

पता नहीं समय गुज़रा भी कि नहीं। पर सब सो गए थे। बाहर, भीतर घुप्प अँधेरा था। बस उसकी आँखों में सफ़ेद और लाल कफ़न में लिपटी लाश आ जाकर धप्प धप्प किए जा रही थी। धीरे धीरे उसे लगा, उसे प्यास लग आई है। फिर गला सूखने सा लगा। उसने आँखें कस कर बंद कर लीं। पर अब तो गला सूखकर चटकने को हो गया था। उसे आँखें खोलने में बहुत डर लगा, पर कोई और चारा भी तो नहीं था।

“गुरुजी, पानी पीने जाना है। चलिए ना?” उसने बहुत हिम्मत करके दरवाज़े के पास सोए आचार्य से कहा।

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं।” कहते हुए आचार्यजी ने ऊँचे से दरवाज़े की कुंडी खोल दी। उसने दरवाज़े के पास खड़े होकर कातर भाव से आचार्य की ओर देखा।

“बाहर धनीराम जी हैं। आप पानी पीकर आ जाइए।” आचार्य ने आधी नींद में कहा। काँपते पैरों से सुबोध बरामदे में आया। बिना गरदन घुमाए उसने सामने देखा। कुर्सी खाली थी। कुर्सी के पार घोपट्याताल पर नज़र पड़ते ही उसके कानों में राम राम सत्य है बजने लगा। मन कठोर कर के सुबोध ने सीधा नल की ओर देखा। बिना दाएँ-बाएँ देखे, निगाह नीची किए वह सीधा नल तक जा पहुँचा।

उसने टौंटी घुमाई और अँजुरी बना कर पानी पीने लगा। दिल अब भी धाड़-धाड़ बज रहा था। कान हल्की सी भी आहट सुनने को तैय्यार बैठे थे।

पानी पीकर जैसे ही उसने सिर उठाया तो स्टेज के पास के पीपल के पेड़ पर उसकी नज़र पड़ी।

वहाँ पर एक सफ़ेद घोड़ा खड़ा था। सुबोध का पूरा शरीर काँपने लगा। भागता हुआ वह अपनी कक्षा की ओर गया। तब उसे महसूस हुआ कि घोड़े के पास कोई और भी है। घोड़े की टांगो के बीच, घोड़े के पेट के नीचे एक आदमी बैठा घोड़े की काठी ठीक कर रहा था।

सुबोध अब दरवाज़े पर पहुँचने ही वाला था कि घोड़े के पीछे से अमीन उठ कर खड़ा हो गया। अगले दिन जब सुबोध घर पहुँचा तो उसका पूरा शरीर काँप रहा था और उसे तेज़ बुखार भी था।
पिताजी ने पंडित मोतीराम को बुलाया। मोतीराम नीम के पत्तों की टहनी उसके ऊपर तब तक फेरते रहे, जब तक कि उसका काँपना रुक नहीं गया।

“बच्चे को छल लग गया था।” उन्होंने इतना भर कहा।

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