“कितनी हैरत की बात है, आदमी जानते बूझते भी बुरी आदतें छोड़ नहीं पाता।” हवलदार साब ने बात छेड़ी।
“एक लहर सी उठती है तो फिर मन क़ाबू में कहाँ रह पाता है?” जगदीश ने सहानुभूति वाले स्वर में कहा। उसके मन से निकली शिबौ-शिब की आवाज़ सब किसी को सुनाई दी।
बाबाजी चुपचाप बैठे सुन रहे थे।
“जब बैठे बिठाए फ़्री में सब मिल जाता है ना, तब ज़िंदगी का मोल समझ में नहीं आता।”
हवलदार साहब ने कहा।
“अरे भुवन, थोड़ा कोयले हिला कर नई लकड़ी लगाओ।” धूनी की बुझती आग देखते हुए बाबाजी ने कहा।
अपना चश्मा सम्भालते हुए भुवन उठा और बाहर आया। बहुत मज़बूत चट्टान पर नदी के एक किनारे पर बना था महेशानी मंदिर। मंदिर वाली जगह, नदी के दोनों किनारों पर चट्टानें इतनी समीप थीं कि नदी बहुत ही संकरी होकर निकलती थी। उन दोनों चट्टानों पर एक पुल भी बना था। पर, मंदिर से ठीक पहले नदी संकरे रास्ते पर आने से पहले चट्टानों से टकराकर घूमकर वापस लौटती थी। जैसे अपनी विशालता को उस तंग गली में समाने से बचा रही हो। लौटते बहाव से नदी दोनों चट्टानों के ठीक पहले ख़ूब चौड़ी हो गई थी। सीधे और उलटे बहाव से नदी में बहुत बड़े भँवर पड़ते थे।
भुवन ने एक नज़र नदी की ओर डाली और फिर अहाते से चार- पाँच लकड़ियाँ उठा लाया।
तभी मंदिर के मेन गेट पर लगा बड़ा सा घंटा बज उठा। बाबाजी ने गेट की ओर देखा और उल्लास से बोले, “लो, श्यामलाल आ गया। अब उसी से कह दो यह सब।”
भुवन ने इस बीच दो मोटी लकड़ियाँ धूनी के कोयलों में ठूँस दीं थीं। थोड़ा सिली लकड़ियाँ थीं शायद। अचानक मंदिर में धुआँ ही धुआँ हो गया।
“भुवन।” थोड़ा कड़ी आवाज़ में हवलदार साब बोले।
झिझकता हुआ भुवन कोयलों के बीच में फूँक मारने लगा। पर लकड़ियाँ नहीं जलीं। भुवन खाँसने लगा। “जब धुआँ फैल जाए तो साफ़ कहाँ दिखता है।” बाबाजी बोले और फिर थोड़ा धूनी की ओर झुककर, अपनी धोती समेटते हुए उन्होंने होंठों को गोल करके धीमे-धीमे नई लकड़ियों के नीचे के कोयलों को फूंकना शुरू किया। थोड़े प्रयास के बाद लकड़ियों ने आग पकड़ ली।
धुएँ से लाल आँसू बहती आँखों के साथ भुवन ने प्रशंसा के भाव से बाबाजी को देखा। “सीप चाहिए भुवन, सीप। हर काम के लिए सीप चाहिए होता है।” हवलदार साब बोले। तब तक श्यामलाल सुनार धूनी के पास आ गया था।
छोटे क़द का श्यामलाल सुंदर नाक-नक़्श वाला सम्पन्न आदमी था। अनपढ़ होने के बावजूद उसने अपनी व्यवहारकुशलता से पुरखों का कारोबार ख़ूब बढ़ा लिया था। महल जैसा मकान, ख़ूब सम्पन्नता, आने जाने वाले साधु संतों की संगत। भगवान ने सब कुछ दिया था। एक सुंदर सुदर्शन बेटा और एक रूपवती कन्या। पर विधाता की करनी। बेटे को शराब और जुए की ऐसी लत लगी कि पिता के सम्भाले नहीं संभली।
बद्रीनाथ में कोई और ऐब नहीं था। न ही श्यामलाल के ख़ानदान में कोई शराबी या जुआरी था। पता नहीं कब बद्री ने शराब और जुए का दामन थामा, किसी को पता ही नहीं चला। पर अब कोई वक़्त नहीं होता जब लाल डोरे वाली आँखें लिए बद्री लड़खड़ाते हुए न मिले।
लाल मोटी जनेऊ और नीचे लाल मोटी धोती पहने अघोर बाबा के पैर छूकर श्यामलाल बैठ गया। “तुम्हारी ही बात हो रही थी, श्यामलाल।” बाबाजी बोले।
श्यामलाल ने बाबा के विशाल माथे , लम्बी नासिका, सफ़ेद दाढ़ी मूँछ भरे गोरे मुख को देखा। बाबा की तेज़ भरी आँखों में क्षण भर देखकर उसने निगाह नीची कर ली। फिर बाबा के पैर पर सिर रखकर रो पड़ा, “बद्री को बचा लो, बाबा।”
“उसकी बात सुनो। उसके दिल की बात। सुनो ज़्यादा, बोलो कम।” बाबाजी ने बस इतना भर कहा।
“मेरे तो पास ही नहीं आता, महाराज। क्या बात करूँ?” श्यामलाल बहुत बेबस होकर बोला। “पता नहीं पढ़े लिखे लड़कों को भी समझ क्यों नहीं आती। शराब और जुआ ख़राब है कौन नहीं जानता। ग़लती श्यामलाल जी की ही है। थोड़ा कड़ाई करेंगे तो लड़का क्यों बिगड़ेगा। अनुशासन के बिना कैसे चलेगा?”हवलदार साब बोल पड़े।
बाबाजी ने एक नज़र हवलदार साब पर डाली फिर बाहर नदी की ओर देखने लगे। बरसात के बाद नदी में अब भी ख़ूब पानी था। चट्टान से टकरा कर भँवर भी बहुत विशाल पड़ते थे। “नियति। नियति के आगे किसकी चली है।” बाबाजी अपने आप से बोले।
इस बातचीत के दो हफ़्तों के बाद की बात है।
दोपहर के दो बजे का वक़्त था। अचानक क़सबे में बड़ी हलचल हो गई। जिसे देखो वह नदी की ओर भाग रहा था। नदी के दोनों किनारों पर लोग जमा हो गए थे। भुवन को सड़क किनारे से कुछ नहीं दिखा तो वह अपने घर की छत पर चला आया। जहाँ से पुल, मंदिर और नदी साफ़ दिखाई देते थे।
सचमुच चमत्कार ही हुआ था। बड़ी सी चट्टान से टकराकर जहाँ से नदी वापस घूमकर बड़ा सा वलय बनाती थी, वहाँ पर पानी में मछलियाँ ही मछलियाँ दिख रहीं थी। हज़ारों-हज़ार मछलियाँ पानी की सतह पर आ गयीं थीं। ऐसा दृश्य तो न कभी देखा न सुना। ऐसा लग रहा था जैसे मछलियों की नदी बह रही हो।
तभी भुवन की नज़र पुल पर पड़ी। हवलदार साब बड़ी तेज़ी से भागते हुए पुल को पार करके बड़े वलय वाले किनारे पर जा रहे थे। किनारे पहुँच कर वह ठिठक कर खड़े हो गए। कुछ चपल युवक इस बीच नदी में कूद गए और अपने हाथों में मछलियाँ पकड़ कर तैरते हुए किनारे पर आने लगे। भुवन ने देखा पाँच-छह जवान लड़के थे जो बार-बार नदी में जाकर हाथों में मछलियाँ थामे तैरकर वापस आते जाते थे।
पूरा क़स्बा नदी को देख रहा था। इतने शोर गुल के बावजूद मछलियाँ कम ही नहीं हो रहीं थीं।
भुवन की नज़र फिर हवलदार साब पर पड़ी। उन्होंने अपना मोटा बंद गले का कोट उतार दिया था और अब वह अपनी हरे रंग की आर्मी वाली स्वेटर उतार रहे थे। थोड़ी ही देर में वह सिर्फ़ कच्छे में थे। उन्होंने नदी की ओर देखा और उन ढेर सारी मछलियों की तरफ़।
फिर अचानक वह वापस लौटे। चट्टान के ऊपर, नदी के दूसरे किनारे पर शराब की कई दुकानें थीं। दुकान पर खड़े होकर उन्होंने जल्दी-जल्दी से एक गिलास में शराब ढालकर पी। लगभग दौड़कर वह नदी के किनारे वापस लौटे। एक नज़र उन्होंने हंस-हंस कर मछलियाँ पकड़ते लड़कों को देखा और फिर नदी में छलाँग लगा दी।
थोड़ी आगे ही वह गए थे कि उनके हाथ दो मछलियाँ लग गईं। वह गर्व से इधर उधर देखते हुए किनारे पर आए और मछलियाँ किनारे पर डाल दीं। एक नज़र उन्होंने फिर अपने आस पास देखा और फिर नदी की ओर। मछलियों का एक बड़ा झुंड उस बड़े से वलय के पास इकट्ठा हो गया था। उन्होंने उसी वलय की ओर छलाँग लगा दी।
“चचा, उस तरफ़ नहीं।” एक जवान तैराक उनकी ओर देखकर ज़ोर से चिल्लाया। उन्होंने मुड़कर उस लड़के की ओर देखा और फिर तेज़ी से तैरकर मछलियों की तरफ़ जाने लगे।
“चचा, उधर नहीं।” वह लड़का फिर चिल्लाया। पर हवलदार साब ने इस बार उसकी ओर देखा तक नहीं। वह तैरते हुए मछलियों के झुंड के पास पहुँचे और एक झपट्टा उन्होंने मछलियों पर मारा। एक हाथ में मछली लेकर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। कई हाथ उन्हें वापस आने का इशारा कर रहे थे। उन्होंने सिर झटककर बाएँ हाथ से एक बाँव काटा। हाथ मारते ही उनके हाथ में एक और मछली आ गई थी।
अब उनके दोनों हाथों में मछलियाँ थीं। अचानक उन्होंने महसूस किया कि पानी के एक बड़े भँवर ने उन्हें पूरा घुमा दिया था। और यह भँवर बड़ा होता जा रहा था। उन्होंने दोनों हाथों में मछलियाँ पकड़े पकड़े ही अपने दोनों पैरों से एक ऊँची छलाँग सी लगाकर बाहर आने की कोशिश की। पर भँवर उन्हें नदी के बीचों बीच ले गया जहाँ से नदी सीधे पुल के नीचे जाती थी।
उनका सिर और दोनों हाथ अब भी पानी के बाहर थे और दोनों हाथों में मछलियाँ थीं। भँवर उन्हें तेज़ी से घुमाता हुआ नीचे लेता जा रहा था।
दूर छत पर खड़े भुवन ने एक दिल दहलाने वाली आवाज़ सुनी और देखा कि अब उनके सिर्फ़ हाथ दिख रहे थे, जिनमें मछलियाँ नहीं थीं। थोड़ी ही देर में हाथ भी दिखाई देने बंद हो गए।
नदी के दोनों किनारों पर लोग ठगे से खड़े रह गए। और मछलियाँ जिस जादू से प्रकट हुई थीं, उसी जादू से विलुप्त भी हो गयीं।
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