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इंतज़ार

बहुत भागकर वह किसी तरह समय पर बस पकड़ पाया था।

सेमेस्टर के इग्ज़ैम के बाद दो हफ़्ते की छुट्टियाँ थीं।

यह तब की बात है जब मोबाइल फ़ोन जनता जनार्दन के सपनों तक में नहीं थे। उन दिनों टेलिफ़ोन सुविधा वाले खोमचे ख़ासकर पी सी ओ वाले ग़ज़ब का धंधा करते थे। कार अब भी मध्यम वर्ग के लिए लग्ज़री थी। कार ख़रीदकर लोग उसकी बैक विंडो पर अपने परिवार का नाम लिखकर फूले नहीं समाते थे। 

ज़ाहिर था अगर दिल्ली से पहाड़ जाना हो या तराई, अच्छे भले घर के लोग भी राजकीय परिवहन निगम की शीशे खड़खड़ाती बस का ही दरवाज़ा ताकते थे। पूरी समाजवादी होती थीं ये बसें। बस की सीटों के बीच का लेग स्पेस राज्य की जनता की औसत टाँग की लम्बाई के माप का होता था। आदमी औसत से अधिक लम्बा अगर ग़लती से निकल आया तो दोनों पैर जोड़कर , दोनों टांगें उत्तर दक्षिण रख कर ही बैठ पाता था। तिस पर भी पड़ोसी यात्री शिकायत करते, भाई साब, थोड़ा सरककर बैठेंगे क्या?

क्या अमीर, क्या ग़रीब सब बस से ही यात्रा करते थे। बारह घंटे लम्बी रात भर की यात्रा में तरह-तरह की गंध और तरह-तरह के रंग तन, मन और आत्मा में रच बस जाते थे। बीड़ी का धुआँ, मूँगफली के छिलके, नाज़ुक लोगों की कै और पेट भरों की शै। हर कोई खिड़की वाली सीट की जुगत में रहता था। लोग एक दूस रे के कंधों पर सवार होकर खिड़की से अंदर रूमाल और तौलिया डाल कर सीट घेर लेते थे। छोटे-छोटे बच्चे तक खिड़कियों के रास्ते अंदर धकेल दिए जाते थे, सीट घेरकर रखना , तीन जन हैं तीन, ऐसा कहना।  

बारह घंटे के सफ़र में बस दो बार रास्ते में रूकती थी। एक बार डिनर के लिए, एक बार चाय के लिए। ढाबे वाले तय थे। कंडक्टर और ड्राइवर के लिए एक केबिन बना होता था, बाक़ी सवारी खुले में। गढ़, गजरौला, किच्छा आदि में इस तरह के ढाबे होते थे। अंधाधुँध बिल को लेकर झगड़ा, ज़हरखुरानी गैंगों की आवाजाही और सामान चोरी होने की आशंका से त्रस्त यात्री जान, माल, असबाब सब अपनी ही ज़िम्मेदारी पर लेकर चलते थे।

इन सबके ऊपर होता था, खाड़कुओं का आतंक। बसें कोनवोय में चलती थीं। हर सीट के पीछे, सीट के नीचे देखकर किसी अनजान सामान के न होने की तसल्ली कर लेने की हिदायत होती थी। लावारिस वस्तु बम हो सकती है । यात्री किसी सामान पर नज़र पड़ते आगे-पीछे, दाहिने-बाएँ पूछ ही लेता था, भाई साब, यह आपका है?

ऐसे में, बस के अंदर घुसते ही उसका कलेजा धक्क से बैठ गया। पूरी बस में बस चार और सवारियाँ बैठी थीं। इन दिनों वह मनाता था कि बस भरी हुई मिले ताकि किसी इमर्जेन्सी में बचने की सूरत तो रहे। बहरहाल, पीछे की एक सीट में, झोला खिड़की से टिका कर, पैर लम्बे करके वह बैठ गया।

सर्दी के दिन थे। अँधेरा घना हो चला था। कंडक्टर ने बस की बत्तियाँ बुझा दीं। डेढ़ घंटे बाद ग़ाज़ियाबाद में बस रुकने पर उसने ग़ौर से चढ़ने उतरने वालों को देखा। एक महिला और उसकी बेटी उतर गए थे, और एक बुज़ुर्ग आदमी चढ़ा था।

खड़-खड़ बजती खिड़की के कम्पन के बीच उसने आँखें मूँद कर सोने की कोशिश शुरू ही की थी कि बस फिर एक झटके के साथ रुक गई। लाइट जली । उसने आँखें खोली, यह तो कोई स्टॉप भी नहीं था। उसका दिल आशंका से भारी हो गया। दो सिख बुज़ुर्ग, दो महिलाएँ  और उनके पीछे एक लड़की बस में चढ़े थे और पीछे की सीटों की ओर आ रहे थे। बीच रास्ते में ऐसे तो हर किसी को बस में नहीं चढ़ाना चाहिए, उसने मन ही मन कंडक्टर को कोसा। 

बुज़ुर्ग और महिलाएँ कंडक्टर के पीछे की सीटों पर बैठ गए। और लड़की उनके बाद वाली सीट पर, ठीक उससे तिरछे। काले सलवार और काली ही क़मीज़ में, काली शॉल ओढ़ रखी थी उसने। पर इससे पहले कि वह ठीक से उसकी सूरत देख पाता, कंडक्टर ने बत्ती बंद कर दी।

किसी बड़े से गड्ढे में कूदती उछलती बस के झटकों से उसकी तंद्रा टूटी। बाहर पूर्णिमा का चाँद खिला था। और तब उसने वह रहस्य देखा जो एक दृष्टा जीवन भर नहीं भूल पाता।

उसके तिरछे बायीं तरफ़ काले कपड़ों में एक गोरा चाँद खिला था। यूनानी मूर्ति को ठगता वह अद्भुत सौंदर्य , शांत सोया पड़ा था। गोल, बड़ी-बड़ी बंद पलकें, लम्बी नासिका, गुलाब से अधिक गुलाबी अधर, रपटीले गोरे गाल और मोहक ठोड़ी।

वह उठकर बैठ गया। चाँद अपनी पूरी चाँदनी से उस यौवना के चेहरे पर छाया पड़ा था। उसे अपनी कल्पना में आनंद आ गया। मुस्कराते हुए उसने बाहर खिले चाँद को देखा।  बेशरम। चाँद को झिड़कते हुए उसके मुँह से निकला।

आहत चाँद बेतरतीब सा कभी उस सौंदर्य के मुखड़े पर छाता तो कभी लड़के की झिडकी से चिहुंककर यहाँ-वहाँ हो जाता। पूनम और अमावस बारी बारी से उस मासूम सौंदर्य को सहला रहे थे।

धत। हद है भाई। तुम ताक़तवर हो तो इसे आसमान से भी छू सकते हो और मैं इतना पास होकर भी कुछ नहीं कर सकता। काश! यह अपनी पलकें ही खोल ले, नयनों से नयनों का ही मिलन भर हो जाए। बस इतनी सी दुआ की उसने।

कुछ तो पागलपन होता है प्रेम में। बूढ़ों के लिए पागलपन और अल्हडों के लिए जादू।

लड़की ने अपनी आँखें खोली।

ओह, अलसायी नींद भरी वह रक्तिम आँखें। जादू था यह पागलपन नहीं – कि वह उसकी घनी अलकों-पलकों में उलझता सरोवर सी आँखों में डूब गया।

इठलाती जवानी में आँखों से अधिक मादक स्पर्श और किसका होता है भला? सोयी अलसायी उसकी आँखें इसकी जागती-जगाती आँखों से जुड़ीं। ऐसा लगा जैसे रोम रोम में रस धार बह चली है, मन तृप्त हो गया है।

सौंदर्य का गुमान। लड़की ने मुँह फेर कर सीधा कर लिया। पर वह कैसे मुँह फेरता?

थोड़ी देर बाद लड़की ने बहुत धीरे से गरदन घुमाकर लड़के को देखा। सोलहों चंद्र कलाओं के क्रमवार चित्रपट सी अनुपम रूपराशि।  चाँद की किरणों से चमकते उसके मुख और सवाल पूछती आँखों को देखकर उसको लगा जैसे  उसकी सभी संचित अभिलाषाएं पूरी हो गईं।

उसने हल्की सी मुस्कान के साथ चाँदी से चमकते मुखड़े को देखा। चुम्बक सा जिसने उसकी आँखों को बाँध लिया था। लड़की का चेहरा निर्विकार बना रहा पर आँखों की चमक चंचल और चंचल होती गई।

रात भर चाँद चमकता रहा। अपने हर रंग से उसके मुख पर रौशनी बिखेरता हुआ। शीशे की खड़-खड़ होती रही पर कानों ने आँखों की ग़ुलामी कर ली थी। वह उसे देखता रहा संसार से बेपरवाह। सुंदरी की नाज़ुक गरदन घूमती रही और सीधी होती रही। उसकी आँखों की चपलता लड़के के दिल को उस अकथनीय सुख में डुबाती रही।

नानकमत्ता के पास बस रुकी तो लड़की का परिवार सीटों से उठकर सामान सहेजने लगा। लड़की की गरदन अब भी पीछे घूम-घूम जाती थी।

“चल कुड़िए।” बुज़ुर्ग सरदारजी ने थोड़ी कठोर आवाज़ में कहा। फिर आँखों ही आँखों से लड़के की लानत-मलानत की। 

बेमन से लड़की उठी और पीछे-पीछे चल दी।  

तब से आज तक, नानकमत्ता से गुज़रते वक़्त उसकी गरदन घूमती रहती है और आँखें कुछ तलाशती रहतीं हैं।

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